Kitaabfarosh
रोटी और कविता
जब लॉकडाउन में मज़दूर हुए मजबूर डामर की तपती सड़कों पर...

चाहिये दो रोटी और एक कविता अपनी भूख मिटाने और उनकी आत्मा जगाने के लिए
डामर के गरम रास्ते और रास्तों पर जाते ठंडे पेट कपड़े की गठरी और गठरी से चिल्लाती एक कविता ‘कि यह कैसा महान दृश्य हैं, क्यूँ चल रहा मनुष्य हैं’ प्लास्टिक की टूटी चप्पल और चप्पल से चीख़ता एक धर्म ग्रंथ ‘यदा यदा ही धर्मस्य’ डामर के गरम रास्तों पर , कवि और उसकी कविता, ग्रंथ और उसका धर्म पिघले जा रहे हैं
एक आधी अधूरी माँ चली जा रही हैं कंधों पे बैठाए उसे जिसे लोरियों से डर लगने लगा है माँ की लोरी का अब मतलब है की आज भी रोटी नही है तभी ठंडे पड़े चूल्हे से एक कविता का धुआँ उठता है ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो...’
एक मज़दूर जेब में हाथ डालता है सुबह का बचा हुआ कुछ तीन बिस्कुट है वो भूख का मज़ाक़ बनाता है और पाँच लोगों में तीन बिस्कुट बाँट देता है अभी मीलों चलना हैं और ना जाने कितनी बार जेब में हाथ डालकर कुछ खाने का नाटक करना है तभी उसका नंगा पाँव उसे एक चुटकुला सुनाता है ‘वीर तुम बढ़े चलो...’
रोटी और पेट की इस सोशल डिस्टन्सिंग से एक नयी कविता निकलेगी बेबस माँ, रोते बच्चे और चलते हुए मज़दूर की और वो डामर की स्याही से लिखी जाएगी।